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Ishwar ka Janm Kaise hua




"आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है "
   हम में से हर कोई इस वाक्य से वाकिफ है। 
और यह वाक्य ही काफी है ईश्वर के जन्म को समझाने के लिए। 
         

            ईश्वर से जुड़ी तरह-तरह की भ्रांतियां आज के आधुनिक समाज में मौजूद है,  जिनके रहते वैचारिक मतभेद होते रहते है | और हमारे मन में कई प्रकार के सवाल और शंकाए जन्म लेने लगती हैं, लेकिन वास्‍तविक ज्ञान के अभाव में हम तरह तरह की गलतियों को अपने प्रतिदिन के जीवन में दोहराते रहते है।
            आइये जानते हैं कुछ ऐसी भ्रांतियां जो हमारे मन और समाज में मौजूद है। जो की दीमक की तरह हमारी बुद्धि को चट कर जा रही है। और हमारी संस्कृति , हमारी धरोहर को भी नुकसान पंहुचा रही है। 
            देखा जाए तो हमारी संस्कृति झूठ अथवा भ्रम  फ़ैलाने वाली कतई नहीं थी। लेकिन वक्त के साथ साथ "संस्कृति" एक  केवल शब्द मात्र  रह गया , और इस नाम की आड़ में हमने बहुत से मिथ को खुले में फैलने दिया | अब संस्कृति के नाम पर झूठ बेचा जा रहा है। आस्था और संस्कृति की दुहाई देकर आँखों में धुल झोंकी जा रही है। 
            
            हम कोशिश करेंगे कि आपको अवगत कराए  इनकी वास्‍तविकता से ।
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            ईश्वर शब्द की शुरुआत जानने के लिए हमें कुछ अन्य सवालो के जवाब भी ढूंढने होंगे , जैसे की :डर  क्या है ?  ईश्वर का जन्म कैसे हुआ ? मानव मस्तिक की सीमाए अथवा शक्तिया क्या है ? भावनाए कैसे हमसे जूड़ी हुई है , इनकी प्रतिक्रिया मूड के अनुरूप कैसे काम करती है ? 
                      और ये सारे सवाल एक दूसरे के जवाब ही है। इनके जवाब हमारे अन्य आर्टिकल में विस्तार से व्यक्त किये गए है। 
         

               चूँकि ईश्वर का जन्म आज नही हुआ है, ईश्वर कोई नया शब्द नहीं हमारे लिए | इसलिए हमें इसे समझने के लिए उस दौर में जाना होगा , जब मानव मस्तिक में पहली बार ईश्वर का ध्यान आया होगा | इंसानो ने पहली बार इसको महसूस किया होगा |
               तो इसके लिए हमें  समय की दीवारों को खरोच कर , अतिथ  में जाना पड़ेगा, जहाँ मानव मस्तिक का विकास होना शुरू ही हुआ था।

             बात तब की है जब मानव के दिमाग में 'सोच' ने घर करना शुरू कर दिया था , उसके दिमाग में भावनाओ ने जन्म लेना शुरू ही किया था | उसे ख़ुशी के होने का तथा दुःख के होने का अनुभव होने लगा |
             जैसा की सब जानते है , आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है , और उस दौर में हमारे पूर्वजो को एक अज्ञात हीरो की जरूरत अथवा आवश्यकता तब आन पड़ी, जब इंसान भावनाओ को समझने लगा (और ये भावनाए ही उनके लिए मुश्किलें बन गयी )। और तब यही भावनाए इंसानो को अन्य जानवरो से भिन्न करने लगी। यह वो घङी थी जब एक बन्दर जैसा दिखने वाला जीव इंसान कहलाने वाला था।उन्हें ख़ुशी , और दुःख का एहसास होने लगा , उन्हें अपने - पराये का एहसास  होने लगा।

           और इसी के साथ तब एक और भावना ने उनके दिमाग में जन्म ले लिया था, "डर" । जब सुख और  दुःख  यहाँ शुरुआती दौर पे थे तो तीसरी भावना का जन्म होना भी काफी तार्किक था, और हुआ भी , हमने उसे डर के नाम से जाना।
           यहाँ इस पड़ाव पर , जब उन्हें सुख का मजा/ स्वाद  और दुःख की पीड़ा  उनका सॉफ्टवेर अपडेट कर रहे  थे  , तो यहाँ एक बायप्रोडक्ट भावना (अथवा छिपी हुई भावना ) भी महसूस होने लगी थी , और इसी वजह से उन्हें सुख के चले जाने का भय सताने लगा , और दुःख के आ जाने का भय  सताने लगा। और यहाँ इसी मोड़ पे एक क्रन्तिकारी भावना (डर) ने जन्म ले लिया था। जिसने सब कुछ बदल कर रख दिया।

           इस भावना ने सबसे पहले हमारी काबिलियत को काबू कर लिया। जिसने अविश्वास को जगह बनाने का मौका दिया। और हमने काफी हद तक आत्मविश्वाश को खो दिया।
          
 आज भी हम तब घबराते है अथवा शरमाते है जबकि हमें किसी चीज़ के बारे  प्रयाप्त जानकारी न हो।
हम भूत प्रेतो से डरते है , क्योंकि हम उनके बारे में कुछ खास नही जानते। जिस दिन जान जाएंगे डर होगा ही नही। वैसे ही हम ईश्वर से डरते है , हमें गणित विषय से डर लगता है , और हमें अन्य लोगो से अथवा अपने से बेहतर व्यक्ति से भी डर लगता है।

            तो जब डर अस्तित्व में आ चूका था , तो उसने अपना असर दिखाना भी शुरू कर दिया था। तो इस भावना की वजह से इंसान अकेला होने से भी डरने लगा ,उसने समूह बनाने शुरू कर दिए। और जैसे ही इंसानो समूहों में बंटने लगे उनके सामने एक और मुसीबत ने मोर्चा खोल दिया | उन समूह को नियंत्रण करना मुश्किल हो गया | और फिर इंसान को लीडर (नेता ) की जरूरत पड़ी , जो की उन्हें बताए की उनको क्या करना है , कैसे करना है , कहा जाना है , क्योंकि उसे खुद पर भरोसा नही था। और  आज भी हम इसी कांसेप्ट को फॉलो करते है (जो की काफी हद तक सही ही है ), हमारे घरों में भी मुखिया (नेता ) होता है , हर जगह कोई न कोई हमें लीड कर रहा होता है , वो बात अलग है की हमारा ध्यान वहा नही जाता। और साथ ही साथ समूह में मतभेद भी होने लगे होंगे , की मुखिया भी आखिर बाकियो की तरह इंसान ही तो है, तो वो (मुखिया ) कैसे बाकियो से  बेहतर हो सकता है।
         

            अतः कोई उन्हें गाइड करने  के लिए कोई तो चाहिए था, जो उन सबसे बेहतर अथवा शक्तिशाली हो  , यानि  एक हीरो की आवश्यकता महसूस होने लगी  । माहौल में गर्माहट बढ़ी , उम्मीद ने कई कहानियो और कल्पनाओ को जन्म दिया। और इसने उनका विश्वास पुनः बनाया। इसी बीच इस शब्द का अविष्कार हुआ , वो था ईश्वर, मसीहा। जोकि इंसानो के अंतरमन में जन्म ले चूका था , और अंतरमन से ही उन्हें गाइड कर रहा था। जब इंसान भटक सकता था , तो इसी ईश्वर ने इंसान की मदद की,  जीवन के शुरुआती दौर से जूझने की ताकत दी। और इस कल्पना ने मानव जीवन को अदभुत परिणाम दिए .
       
           पर आज इंसान अपने पैरो पर खड़ा हो सकता है, और काफी हद तक हो चूका है । अब उसे काल्पनिक विश्वास की जरूरत नहीं। तब यह कल्पनीक विश्वास (ईश्वर ) बेशक हमारी ताकत था , पर आज कमजोरी में तब्दील हो गया है।
           वक़्त के साथ बदलना होगा , तब उस दौर में भी बदलाव हुआ था (जहा इस कल्पना का जन्म हुआ )।
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            सच्चाई एक दम फ़िल्मी सी लगती है , सच पूछो तो हम ईश्वर की पूजा नहीं करते , उनका सम्मान नहीं करते , | बस उनसे डरते है , और इसीलिए जो एजेंट(धर्म गुरु ) हमें जैसा कहता है , वैसा करते जाते है , बिना कोई सवाल किये |
डर  क्या है ? यह एक तरह से किसी चीज़ को खोने का दुःख है।
और इस दुःख से छुटकारा पाने के लिए हमें किसी न किसी  के आगे तो रहम की भीख मांगनी ही थी, की प्लीज ऐसा बुरा मत होने दो, और उस अज्ञात आशा ने ईश्वर का नाम धारण कर लिया। जो की बेहद खूबसूरत था, जब तक की वो अज्ञात आशा की किरण थी , पर वक्त के साथ साथ इसने विराट रूप धारण कर लिया।  इंसानो की कमजोरियों को भय में तब्दील कर दिया, तब उसे और खुश करने की होड़ चूरू हो गयी , उसे खुश करने के जुगाड़ खोजे जाने शुरू किये गए  , और उसी डर ने कई ऐसी कुरीतियो और धारणाओ को जन्म दे दिया , जिनका कोई सर - पाँव नहीं है। 

इस विषय के बारे में हम किसी और आर्टिकल में चर्चा करेंगे। चूँकि इस आर्टिकल के लिए इसका तर्क भी महत्वपूर्ण है , अतः इसका सारांश में  जिक्र किया गया है। 








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